मंगलवार, 18 मई 2010

मेरे मित्र : भूपेन्द्र सिंह (2)

भूपेन्द्र सिंह बड़े लाजवाब व्यक्ति हैं। निहायत कञ्जूस बोलने के मामले में। उतने ही उदारमना ज़रूरतमन्दों की सहायता के मामले में। ये शख़्स जब मदद करने चलता है तो फिर ये नहीं देखता कि देने के बाद क्या बचा उसके पास।
ये बात आज की नहीं है, जब ठाकुर पढ़ते थे हमारे साथ, तब भी ऐसे ही दानी थे। अपनी आँखों से देखा है हमने राजा साहब को पैसे देते हुए जोगी-भिखारी को – द्रवित हो गए थे उसके ऊपर। जेब में हाथ डाला इन्होंने तो 775 से कुछ ज़्यादा रुपए निकले, पूरे दे दिए इन्होंने। मैंने रोकने की कोशिश की, काफ़ी, मगर मुझे चुप करा दिया कि अभी बाद में बात करते हैं। इतने पैसे उस समय इन्होंने दे डाले जबकि एक प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी की कुल मासिक तनख़्वाह उस समय 700-1300 के वेतन ग्रेड में लगभग 3000 रुपए होती थी।
बाद में बात करनी थी, और ‘बाद’ मेरे अधैर्य के कारण बस पाँच-छ्ह मिनट में ही आ गया। भूपेन्द्र से मैंने पूछा – “इतने पैसे आए कहाँ से?”
बोले – “इस महीने का ख़र्च भेजा था पापा ने”।
“अब ख़र्च कैसे चलेगा?”
“वो तो दिक्कत होगी…पर कुछ रास्ता निकल आएगा”
दूसरों को वही रास्ता दे सकता है जिसमें नया रास्ता तलाशने की उम्मीद और हौसला, दोनों हों। काम चला, महीने भर किसी तरह।
यह मैं एक क़िस्सा बयान कर रहा हूँ, हुए जाने कितने, और कितने मेरी ग़ैर-मौजूदगी में भी हुए होंगे। भूपेन्द्र सिंह का कहना है कि मदद इतनी तो करो कि आदमी के कुछ काम आए, बजाय बेकारी और परजीवी-पने को बढ़ावा देने के।
* * * * * *
भूपेन्द्र कम बोलते हैं, अमूमन ऐसा समझा जाता है। किसी हद तक सही भी है। कमरे में अगर आपके और उनके अलावा कोई तीसरा है, तो बात आप लोग कीजिए। अगर आप और भूपेन्द्र, दो ही जने हैं, तब ज़रूरी है इसलिए आप से बात होगी। शिष्टाचार में कमी नहीं होगी। मुझे उनकी ये अदा भाती है।
कम बोलने का एक फ़ायदा ये भी है कि बोलने से बचाए हुए समय में वे सोचते और मुस्कराते रहते हैं। इस तरह थोड़ा सा बोलने के पहले बहुत सोच चुके होते हैं वे।
भूपेन्द्र सिंह का यह उवाच याद रहेगा ताउम्र –“बात अगर सही हो, उसमें दम हो, तो ऊँची आवाज़ की ज़रूरत नहीं होती। ऊँची आवाज़ से ग़लत बात सही नहीं हो सकती। मानने या न मानने से बात सही-ग़लत नहीं होती”।
ऐसी कितनी ही बातें हैं, मगर हर बार थोड़ा-थोड़ा। किसी ने भूपेन्द्र के बारे में मेरी संक्षिप्त मोबाइल पोस्ट पर कहा था कि “आपके मित्र सभी बहुत अच्छे हैं”
तब मैंने सोचा – “बात तो सही है। मित्र सारे बहुत अच्छे हैं, मेरे। मुझसे तो सभी ज़्यादा अच्छे हैं। मगर फिर सोचा – मित्र ही क्यों होते, अगर अच्छे न होते?”
भूपेन्द्र सिंह बहुत अच्छे इन्सान हैं, मेरे अन्य मित्रों की तरह ही। मैं अन्य मित्रों के बारे में भी लिखना चाहता हूँ, और भूपेन्द्र सिंह के बारे में भी, मगर बाक़ी फिर कभी…

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