सोमवार, 31 मई 2010

माण्डा रोड स्टेशन पर आकाशीय बिजली गिरना

29मई10 कुछ उपकरण जो जल गए उनके चित्र देख कर समझ सकते हैँ कि कैसे सारी संचार व्यवस्था व सिगनलिँग ठप हो गई और क्योँ इतनी देर लगी सब कुछ सामान्य होने मेँ, तकरीबन 10 घण्टे।

हिमान्शु मोहन || Himanshu Mohan
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सोमवार, 24 मई 2010

एक और काव्यचित्र

यह एक काव्यचित्र भी है और मेरी एक ख़्वाहिश भी, एक ख़्वाब भी जो मैँ जानता हूँ कभी पूरा नहीँ होगा...

अधूरा रहेगा, मेरी ही तरह...

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मंगलवार, 18 मई 2010

मेरे मित्र : भूपेन्द्र सिंह (2)

भूपेन्द्र सिंह बड़े लाजवाब व्यक्ति हैं। निहायत कञ्जूस बोलने के मामले में। उतने ही उदारमना ज़रूरतमन्दों की सहायता के मामले में। ये शख़्स जब मदद करने चलता है तो फिर ये नहीं देखता कि देने के बाद क्या बचा उसके पास।
ये बात आज की नहीं है, जब ठाकुर पढ़ते थे हमारे साथ, तब भी ऐसे ही दानी थे। अपनी आँखों से देखा है हमने राजा साहब को पैसे देते हुए जोगी-भिखारी को – द्रवित हो गए थे उसके ऊपर। जेब में हाथ डाला इन्होंने तो 775 से कुछ ज़्यादा रुपए निकले, पूरे दे दिए इन्होंने। मैंने रोकने की कोशिश की, काफ़ी, मगर मुझे चुप करा दिया कि अभी बाद में बात करते हैं। इतने पैसे उस समय इन्होंने दे डाले जबकि एक प्रथम श्रेणी राजपत्रित अधिकारी की कुल मासिक तनख़्वाह उस समय 700-1300 के वेतन ग्रेड में लगभग 3000 रुपए होती थी।
बाद में बात करनी थी, और ‘बाद’ मेरे अधैर्य के कारण बस पाँच-छ्ह मिनट में ही आ गया। भूपेन्द्र से मैंने पूछा – “इतने पैसे आए कहाँ से?”
बोले – “इस महीने का ख़र्च भेजा था पापा ने”।
“अब ख़र्च कैसे चलेगा?”
“वो तो दिक्कत होगी…पर कुछ रास्ता निकल आएगा”
दूसरों को वही रास्ता दे सकता है जिसमें नया रास्ता तलाशने की उम्मीद और हौसला, दोनों हों। काम चला, महीने भर किसी तरह।
यह मैं एक क़िस्सा बयान कर रहा हूँ, हुए जाने कितने, और कितने मेरी ग़ैर-मौजूदगी में भी हुए होंगे। भूपेन्द्र सिंह का कहना है कि मदद इतनी तो करो कि आदमी के कुछ काम आए, बजाय बेकारी और परजीवी-पने को बढ़ावा देने के।
* * * * * *
भूपेन्द्र कम बोलते हैं, अमूमन ऐसा समझा जाता है। किसी हद तक सही भी है। कमरे में अगर आपके और उनके अलावा कोई तीसरा है, तो बात आप लोग कीजिए। अगर आप और भूपेन्द्र, दो ही जने हैं, तब ज़रूरी है इसलिए आप से बात होगी। शिष्टाचार में कमी नहीं होगी। मुझे उनकी ये अदा भाती है।
कम बोलने का एक फ़ायदा ये भी है कि बोलने से बचाए हुए समय में वे सोचते और मुस्कराते रहते हैं। इस तरह थोड़ा सा बोलने के पहले बहुत सोच चुके होते हैं वे।
भूपेन्द्र सिंह का यह उवाच याद रहेगा ताउम्र –“बात अगर सही हो, उसमें दम हो, तो ऊँची आवाज़ की ज़रूरत नहीं होती। ऊँची आवाज़ से ग़लत बात सही नहीं हो सकती। मानने या न मानने से बात सही-ग़लत नहीं होती”।
ऐसी कितनी ही बातें हैं, मगर हर बार थोड़ा-थोड़ा। किसी ने भूपेन्द्र के बारे में मेरी संक्षिप्त मोबाइल पोस्ट पर कहा था कि “आपके मित्र सभी बहुत अच्छे हैं”
तब मैंने सोचा – “बात तो सही है। मित्र सारे बहुत अच्छे हैं, मेरे। मुझसे तो सभी ज़्यादा अच्छे हैं। मगर फिर सोचा – मित्र ही क्यों होते, अगर अच्छे न होते?”
भूपेन्द्र सिंह बहुत अच्छे इन्सान हैं, मेरे अन्य मित्रों की तरह ही। मैं अन्य मित्रों के बारे में भी लिखना चाहता हूँ, और भूपेन्द्र सिंह के बारे में भी, मगर बाक़ी फिर कभी…

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शनिवार, 15 मई 2010

बिगुल

भावी भारत के कर्णधार!
प्राचीन संस्कारों पर तुम,
                            अधुना की पहली ईंट धरो
जो सभ्य शिष्ट सब श्व: को दो,
                            कुत्सित सब ह्य: की भेंट करो


हर सत्य बना डालो सुंदर,
                            पर सभी अमंगल शिवम् हरे
सारे रत्नों को बाँटे तो,
                            पर गरल-पान वह स्वयम् करे

विध्वंस करो, पर याद रहे!
                            उससे दूना निर्माण करो
स्वर्णिम कल की बलिवेदी पर,
                            अर्पित तुम अपने प्राण करो


जब दर्द हृदय में उठे; नहीं-
                           आँखें आँसू की ओट करो
हे नवयुग के निर्माता तुम
                           दूनी ताकत से चोट करो

गढ़-गढ़कर प्रतिमा कल की तुम,
                          हो सके-आज तैयार करो
कह दो तानाशाहों से- मत
                          जज़्बातों का व्यापार करो

है आज रुष्ट जो मूर्ति, तुम्हारी छेनी और हथौड़े से
कल वह महत्व पहचानेगी, लोगों के शीश झुकाने का
जो आज बना विद्रोही है, हर रूढ़ि और अनुशासन का-
इतिहास गवाही देता वह - निर्माता नए ज़माने का!

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शुक्रवार, 14 मई 2010

शनिवार, 8 मई 2010

कंपनीबाग, इलाहाबाद

उसी उद्यान परिसर मेँ विक्टोरिया स्मारक तथा गोल पार्क व अन्य क्रीड़ा मैदान। इसी परिसर मेँ मदन मोहन मालवीय स्टेडियम भी है।

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यही बाक़ी निशाँ होगा

चन्द्रशेखर आज़ाद की प्रतिमा, शहीद हुए जहाँ वो उसी स्थान पर लगभग। मेले हर बरस लगने की उम्मीद भी कुछ ज़्यादा ही लगा ली क्या रामप्रसाद बिस्मिल ने?

सालाना माल्यार्पण तो होता है यहाँ और उस दिन आइस्क्रीम और चुरमुरे के ठेले भी आ जाते हैँ एक दो, मेला..

पता नहीँ और जगहोँ पर यह भी होता है या नहीँ!

अब सेलेबुलता के आधार पर मेले प्रायोजित किए जाते हैँ।

जय हो!

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शनिवार, 1 मई 2010

घोषणा : पोस्टरस पर माइक्रोपोस्टें और कण्टेण्ट पोस्टें जारी रखूँगा

मैंने यह तय किया है कि पोस्टरस पर कण्टेण्ट पोस्टें और अन्य माइक्रो-पोस्टें जो सीधे मोबाइल से होती हैं, जारी रखूँगा। इस क्रम में ब्लॉगर पर ऑटोपोस्टिंग संगम तीरे से बन्द कर के दूसरे ब्लॉग पर शुरू कर दूँगा और वर्डप्रेस पर जारी रखूँगा इसी "इलाहाबादी बतकही" को जो नमस्तेजी वाले एड्रेस पर है। आख़िर पोस्टरस ने ही मेरी ब्लॉगिंग शुरू करवाई थी और इतना आसान भी तो है यहाँ पोस्ट करना!

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फूलों से भरा दामन : शेर-ओ-शायरी

फूलों से भरा दामन : शेर-ओ-शायरी
फूल खुशी देते हैं ना!

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