बुधवार, 31 मार्च 2010

अपठनीयता और हम

डॉ0 जगदीश गुप्त कहा करते थे - "कवि वही जो अकथनीय कहे"
हमें कुछ गड़बड़ प्रेरणा मिल गई लगता है, सो हम समझे बिलागर वही जो अपठनीय लिखे।
बस इसीलिए गड़बड़ा रहे हैं, बड़बड़ा रहे हैं…
 
* * * * * * * * *
 
"यक्षत्व" लगता है "बुद्धत्व" की ओर पहला कदम है।
लगता है कि "यक्षत्व" में बड़ा तत्व है,
अधिक यक्षत्व प्राप्त ही "बोधिसत्व" है…
नहीं, ऐसा है कि जिसे प्रश्न मिले, उत्तर नहीं - उसमें तो "यक्षत्व"
जिसे उत्तर भी मिल गए - वही बना "बोधिसत्व"
 
* * * * * *
 
बात में है थोड़ा "गूढ़त्व"
बढ़ाता है "मूढ़त्व"
 
* * *
पहले जब "छाया" प्रति नहीं होती थी
(तब "छाया" मन को छूती थी, गिरजाकुमार माथुर परेशान थे बिचारे, मना करते रहते थे कि छूना नहीं - छूना नहीं - मन को। ये बात सोचने की है कि आज क्या वो अस्पृश्यता के अपराध में धरे जाते या नहीं? वैसे भी "छाया" तो फ़ीमेल हुई, सो दो-दो एक्ट लगते उनके खिलाफ़। अरे हम कहाँ बहक गए? वापस पोस्ट पर चलें)
हाँ तो जब छायाप्रति नहीं होती थी, तब भी प्रमाणित प्रतिलिपि होती थी महत्वपूर्ण दस्तावेजों की। उसे राजपत्रित अधिकारी के हस्ताक्षर और मुहर के तले प्रमाणित किया जाता था, ताकि मूल दस्तावेजों की प्रामाणिकता जाँचने तक इन्हें आधिकारिक माना जाए।
(अब आजकल जो सुविधा और संभावना का युग है उसमें आप मूल प्रमाणपत्र भी तीन-चार बनवा लें तो हम क्या करें? मगर तब ऐसा ही था।)
तो उसमें प्रमाणपत्र की जो हस्तलिखित या टंकित प्रति तैयार की जाती थी उसमें मूल हस्ताक्षर की नकल तो उतार नहीं सकते थे, (कहा न, ये तब की बात है, आजकल की नहीं! समझा करो यार) तो उसकी जगह लिखा जाता था "अपठनीय" या "अपठित"।
बोले तो "इल्लेजिबुल" अंगरेज़ी में। (इल्लेजिटिमेट नहीं, कहा न ये तब की बात है,…फिर वही…)
तो मतलब समझे आप?
यानी कि जो सबसे महत्वपूर्ण चीज़ थी उस दस्तावेज में, वही अपठनीय।
इस से यह भी आसानी से समझा जा सकता है कि जो जितना अपठनीय, उतना महत्वपूर्ण।
 
* * *
 
हो सकता है गुप्त जी ने "अकथनीयता" वाली बात की इंस्पिरेशन (अब बड़े लोग ये सटही प्रेरणा आदि थोड़े ही लेते होंगे) भी ऐसी ही अपठनीयता से ली हो!
सो हम भी कभी-कभार अपठनीय होते रहेंगे, ऐसा सोचा है।
 
फ़ुटनोट- सबसे ज़रूरी, सबसे काम की बात फ़ुटनोट में या हाशिए पर ही लिखी जाती है। काम ज़्यादा करने वाले आदमी भी हाशिए…छोड़िए, हम कह ये रहे थे कि छायाप्रति न हो पाने के दौर में काग़ज़ की बर्बादी कम होती थी और काग़ज़ खर्च भी कम जीएसएम का होता था, कई-कई प्रतियाँ जो टाइप करनी पड़ती थीं, कार्बनपेपर लगाकर।
तब प्रवीण पाण्डेय के 37 पेड़ बचे रहते थे और होली में पेड़ ज़्यादा जलाए जाते थे बनिस्बत टायरों के या काग़ज़ बनाने पर पेड़ों के खर्च से। यानी काग़ज़ की क़श्ती, काग़ज़ के फूल, काग़ज़ के शेरों के बदले केवट की क़श्ती, टेसू-गुलाब और शायरी के ही नहीं असली शेरों का ज़माना था।

फ़ुटनोट का फ़ुटनोट - पिछ्ले नवरात्रि के दौरान अधिकांश चित्र माता दुर्गा जी के जो दिखे, उनमें उनका वाहन बाघ चित्रित था, शेर नहीं। कल को 1411 बचे बाघ…माता वाहन न बदल लें कहीं।

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प्रश्न : एक अपठनीय कविता

प्रश्न कितने हैं न जाने, एक भी उत्तर नहीं

यक्ष आतुर प्रतीक्षारत, वह स्वयम् प्रस्तर नहीं 

 
प्रश्न करने या न करने से भला क्या प्रयोजन

परस्पर भाषा-कलह में एक भी अ-“क्षर” नहीं

 

जूझती बैसाखियों पर मौत लादे प्रश्नहीन

मूर्त्त जीवट स्वयं, निस्पृह लोग ये कायर नहीं

 

प्रश्न-उत्तर, लाभ की संभावनाओं से परे

अर्थवेत्ता-प्रबन्धक कोई अत: तत्पर नहीं

 

सब सहज स्वीकारने का मार्ग सर्वोत्तम सही

साधना-पथ पर “सहज” से अधिक कुछ दुष्कर नहीं
 
अन्यत्र "यक्ष-प्रश्न" पर यह कविता फ़ॉर्मैट कर के छापी, यहाँ ऐसे ही। प्रयोग जारी है।

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प्रश्न-जिज्ञासा और यक्षत्व

प्रश्न इकट्ठे होते जाएँ और समाधान न हो पाए तो अपनी बौद्धिक क्षमता की सीमाओं का एहसास और शिद्दत से होता है।

जब दूसरों से भी उत्तर न मिले तो असहायता का।

क्या होता है जब प्रश्न-ही-प्रश्न हों चहुँ-ओर? अस्तित्व ही प्रश्न लगे?

प्रश्नों से घिरे रहकर मनुष्य यक्षत्व को प्राप्त हो जाता है।

दूसरों को धमकाता है प्यासे रहो!

यदि मेरी जिज्ञासा की प्यास बुझाए बिना जल पिया तो पत्थर के हो जाओगे।

वास्तव में धमकाता नहीं, यक्ष सचेत करता है कि यदि प्रश्नों के उत्तर न खोजे तुमने, तो आज नहीं तो कल, पत्थर का तो तुम्हें होना ही है।

मगर उनका क्या जो प्रश्न ही नहीं पूछते?

जिन्हें सब-कुछ सहज स्वीकार्य है?

चैन नहीं खोना है तो प्रश्न मत पूछो। स्वीकार में शान्ति है और जिज्ञासा में बेचैनी। मुमुक्षु को या तो अपनी सब जिज्ञासाएँ शान्त करनी होंगी, या फिर प्रश्न न पूछ कर, सब कुछ सहज स्वीकारना होगा।

और हम यहाँ सदियों से पड़े प्रश्नों के तर जाने की आस में उत्तरों की भागीरथी के अवतरण हेतु किसी शिव की जटाओं की तलाश में, निरन्तर…
 

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शुक्रवार, 26 मार्च 2010

कुमुक मोर्चे पर

जंग छिड़ने ही वाली है (गर्मी से), कुमुक (कूलरों की शक्ल में) मोर्चे पर पहुँच चुकी है। रसद (पानी-बिजली) का पता नहीं क्या होगा इस बार जंग के दौरान।

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शनिवार, 20 मार्च 2010

इलाहाबाद के चर्च : सेण्ट पॉल्स चर्च

आज प्रस्तुत है सेण्ट पॉल्स चर्च, इलाहाबाद। यह भी सिविल लाइन क्षेत्र के अत्यन्त समीप और पुरुषोत्तम दास टण्डन पार्क के ठीक पूर्व में सड़क के पार स्थित है। चर्च का सौन्दर्य सड़क की पटरी पर उगे बाज़ार से कैसा लग रहा है, यह दर्शाना एक प्रमुख ध्येय है मेरी इन पोस्टों का।
ये चर्च-चित्र-यात्रा सिविल लाइन से सटे हुए इलाकों की ओर अब चल कर संत मेरीज़ कॉन्वेण्ट और सेण्ट जोसेफ़ कॉन्वेण्ट के चर्च की ओर पहुँचेगी। फिर अन्य चर्च भी।
ख़ास बात यह ज़रूर है कि चर्च का अपना एक आर्किटेक्चर या वास्तु होता है इसलिए चर्च कहीं भी पीपल या नीम के नीचे तो नहीं उगते मगर ऐसे कम भी नहीं हैं संख्या में, यह शायद आप भी महसूस करें।

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इलाहाबाद के चर्च : लाल गिरजा

और यह रहा लाल गिरजा या मेथोडिस्ट चर्च, यह भी सिविल लाइन क्षेत्र में ही है। यहाँ भी एक स्कूल चलता है, मेथोडिस्ट स्कूल। इसे नाम मिला हुआ है सेण्ट्रल चर्च का। सिविल लाइन में अभी कई अन्य चर्च शेष हैं जिनसे शीघ्र ही आपको परिचित करवाना है। 

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बुधवार, 17 मार्च 2010

कोशिश

ये वो बकवास है जिसे पढ़कर आदरणीय ज्ञानदत्त पाण्डेय जी मुझे ब्लॉगरी में घसीट लाए। ये उसी भूमिका के साथ वैसे ही प्रस्तुत है-


ये मेरा हालिया दौर में ताज़ा-ताज़ा लेखन है जिससे अभी तक धुआँ उठ रहा है। अब आप इस फ़िक्र में मत पड़ जाइए कि-


देख तो दिल-कि-जाँ से उठता है
ये    धुआँ-सा    कहाँ    से    उठता   है


भाई ये मेरे इस ‘अंश’ को लिखने या लिख डालने के पीछे सारी तोहमत, ज़िम्मेदारी या प्रेरणा, जो कुछ है सब कपिल भाई की वजह से। इस जोश से और इतना ठीक-ठाक लिख रहे हैं कि साथ निभाने को दो कदम चलना ही पड़ा। काव्य में पुराना हूँ मगर गद्य कभी लिखा नहीं सिवाय फ़ाइलों पर नोटिंग या परीक्षा में उत्तर के अलावा सो वही लिखने की कोशिश की है। कोशिश के सहारे शायद आगे ठीक भी लिखने लगूँ, इसी उम्मीद से लिखा और अब आपको भेज रहा हूँ “ताकि सनद रहे और वक़्त-ए-ज़रूरत काम आए”।

*   *   *   *   *   *   *   *   *   *   *   *

आसान नहीं है लिखना, सोच-सोच कर। इसी से ब्लॉग लिखने की कोशिश नहीं कर रहा, कभी-कभी दिल में खयाल आने के बावज़ूद।


मगर जब से यह सोचना शुरू किया कि लिखना तो आसान ही है, मुश्किल तो सोचना है, तब से यह कठिनाई दूर हो गयी। अब सोचना तो मुझे पहले से ही आता है। यह खुशफ़हमी वैसे तो कई लोगों को होती है मगर मेरे बारे में मेरे अलावा और लोगों को भी है।


तो आसानी से यह माना जा सकता है कि मैं सोच तो पहले से ही लेता हूँ, अब समस्या सिर्फ़ लिखने की बची। जो सोचा उसके सही या गलत का विचार करना ज़रूरी नहीं क्योंकि सही और गलत की परिभाषा का खुद में सही या गलत होना ही तय नहीं है। तो सोच भी लिया और लिख भी लिया – यानी हो गये लिक्खाड़। यानी लिखाई न हुई, पहलवानी हो गयी!


मेरे एक परिचित हैं-बड़े विश्वास और आस्था से कहते हैं-“भई लिखते रहिए। रोज़ कुछ-न-कुछ लिखिए ज़रूर। मैं तो जिस दिन कम से कम चार-छ्ह पेज न लिख लूँ। मुझे नींद ही नहीं आती। लगता है कुछ खाली-खाली सा है। कुछ ‘मिस’ करने जैसा लगता है”।


गोया लिखना न हुआ – सुबह-शाम टहलना या बाबा रामदेव के तरह-तरह के प्राणायाम जैसा कुछ हो गया।
यानी मानसिक व्यायाम! वैसे मुझे भी इसमें कुछ-कुछ ‘मान’ और कुछ-कुछ ‘सिक’ जैसा लगता तो है।


अब मेरा खयाल ये है कि इनके लिए लिखना ‘क्रिएटिव’ कैसे हो सकता है? रचनात्मकता है तो इस लिखाई में, मगर 19वीं सदी की किसानी जैसी लगती है। अपना काम खेत तैयार करने, बीज बोने, खाद लगाने, निराई करने का। पानी बरसाना ऊपर वाले का-अल्ला मेघ दे! फिर लगान लेना ज़मींदार का, फसल कटवा लेना ज़मींदार का और कभी-कभी जलवा देना भी, नाराज़ होने पर। भूखे रह कर तरसना-तड़पना परिवार का, सूद पर पैसा देना साहूकार का और अगली फसल तक ज़िन्दा रह जाने पर फिर खेती करना फिर से मेरा। यानी काम का बँटवारा अच्छी तरह कर रखा था सभी भागीदारों ने।


मगर किसान हर हालत में खेती का काम रोज़ाना करता ही था – बिना ‘मूड’ होने या न होने की परवाह किए। तो ऐसी लिखाई की ही उम्मीद की जा सकती है ‘रोज़ कुछ पेज’ लिखने वाले की लिखाई में। बहुतायत से गद्यात्मकता की उम्मीद। शायद मेरी और उनकी सोच के फ़र्क की वजह भी यही है कि मुझे कविता की विधाओं से वैसा लगाव है जैसा उन्हें लेख, उपन्यास आदि से।


मगर ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’। जिन की मति ‘जड़’ नहीं थी ओरिजिनली, उनके बारे में कहावत लागू है या नहीं यह किसी दानिश से पूछ्ना पड़ेगा। सो लगे हाथ यह भी पूछ लेंगे कि ‘मेघ दे’ का काम अल्ला मियाँ के भरोसे ही क्यों छोड़ा हुआ था इतने बरस तक भाई लोगों ने?


क्या दूसरे लोगों के धर्म में गरीब-ज़रूरतमन्दों के लिए पानी बरसाने की मनाही है? या फिर पानी बरसाने का काम अल्ला मियाँ का, बर्फ़ गिरवाने का जीसस क्राइस्ट का, पत्थर बरसाने का जेहोवा का, निहाल करने का वाहेगुरू का (चाहे अपनी गर्दन ही क्यों न कटवानी पड़ जाए) और हाथ-पे-हाथ रख के बैठे रहने का भरोसा देने का भगवान का – कुछ इस तरह बँटवारा है क्या कामों का ऊपर आस्मान में? यहाँ यह बात दर्ज करना मैं ज़रूरी समझता हूँ कि ये ख्यालात कम्यूनल क़तई न समझे जायँ, बस थोड़ा सा सोचने के तरीके का मामला है यहाँ।


यहीं यह भी साफ़ कर देना ज़रूरी है कि अगर ग़ौर से देखा जाय तो समझ में आता है कि जो जितना ज़्यादा नियम से, लगातार और बिना फल की परवाह किए काम किए जाता है, उसे समाज में उतना ही निचले दर्जे का समझा जाता है और जो जितना ज़्यादा अपने ‘मूड’ के वशीभूत होकर काम करे, उसका दर्ज़ा उतना ही ऊपर। क्या यही ईश्वरत्व की पहचान है? या साफ़ हिन्दी में कहें तो ‘ऐश्वर्य’ की?


यानी ‘मूड’ नहीं था तो पानी नहीं बरसाया और ‘मूड’ किया तो फागुन में भी बारिश-ओले! यानी और ज़्यादा मूड किया तो ओले-ओले! और उधर हमारे कपिल भाई की तितलियाँ - बेचारी फूल ढूँढती फिर रही हैं फागुन में। और फूल नहीं मिलते, डैमफूल भले बौराए-फगुनाए-वैलेण्टियाए घूम रहे हों।


और यहाँ बारिश-कोहरा और बाढ़ आ जाए तो ज़िम्मेदारी ‘ख़ान’ की? बेचारा पहले ही लोगों को नाम (सॉरी! नेम) बताता घूम रहा है और लोग हैं कि ध्यान ही नहीं देते; ‘ख़ान’ से इंस्पायर नहीं होते – ‘शाह-रुख़’ पर सारा अटेंशन है।
वैसे भी ‘ख़ान’ होने में रखा ही क्या है? किसी को ऑस्कर नहीं मिला, किसी को ऐश्वर्य…


वो भी सब के सब राजा(शाह) का मुँह (रुख़) देख रहे हैं, यह भी देख रहे रहे हैं कि बादशाह का अब क्या रुख़ है? वो ज़माने अब गए जब लोग डरे-डरे रहते थे कि जाने कब कोई जाने किधर से ‘ठाँ’ करे! अब तो ‘ठाँ’ करके गले से लग जाते हैं लोग। सबका ध्यान इसी पर है कि राजा साहब अब किधर को देख रहे (रुख़ कर रहे) हैं? भाई ‘शाहरुख़’ का मतलब ‘जड़’ मति से तो ‘शाह जैसे चेहरे वाला’ ही समझ पाते हैं लोग। तभी तो अभ्यास करत-करत, करत-करत, करत-करत…


‘हाँ’ समझ गए ना? ये आराम का मामला है। आराम क्लासेज़ का भी।


उधर भइया हैं कि जो अब भइया रहे नहीं, ‘पा’ बन गए हैं। मगर खुद नहीं बने, खुद तो खाली बोलते हैं ‘पा’ और बिटवा को ही बना दिया ‘पा’। जो दूसरा ‘पा’ था ना ‘पापा’ में, सुनते हैं इन्कमटैक्स वाले ले गए बकाया उगाही के तौर पर। कोई ये भी कह रहा था कि शायद इन्कमटैक्स से तो छूट गया था, मगर दूसरा ‘पा’ जो पापा से अलग होकर निकला (या शायद निकाल दिया गया) वही ‘अमर’ हो गया है। ये बचा हुआ पा भी अकेला रह जाने से अब आजकल काफ़ी ‘मुलायम’ है। सब माया का खेल है।


माया महा-ठगिनि हम…


और देखिए कि ऐसी बकवास…


बेसिर-पैर की, फिर भी आप यहाँ तक पढ़ गए। यानी काफ़ी खाली वक़्त है भाई लोग के पास। अगर इतना वक़्त कुछ सरकारी काम-काज करने या सुधारने में लगाया होता…


तो क्या…


तो उसका भी ऐसा ही बण्टाधार किया होता जैसा लिखने की विधा का, इस अपने और हमारे वक़्त का और दमाग़ का किया है। चलो अच्छा ही किया जो ये किया, वो नहीं किया।


अच्छा है दिल के पास रहे पासबान-ए अक़्ल
लेकिन   कभी-कभी   उसे   तन्हा   भी   छोड़  दे

मंगलवार, 16 मार्च 2010

नवरात्रि : देवी दर्शन और पूजन

ज़रा ध्यान से देखिए।
कुछ दिखा?
ज़रा चित्र पर क्लिक कीजिए - शायद पूरे आकार में देखने पर दिखे-
यक़ीन कीजिए, मैं अंधविश्वास नहीं फैला रहा।
मैं तो विश्वास जगाना चाहता हूँ।
कोशिश कर के देखिए - हाँ, अब जो धुँधली सी आकृति आप को दिख रही है, यही देवी का वह रूप है जिसके मुझे दर्शन हुए। इसके पीछे ही देवी का एक अन्य रूप भी है, जो मुझे तो दिख रहा था मगर कैमरे की नज़र में दर्ज नहीं हो पाया। अन्य चित्र जो कुछ दिखा रहे हैं वह कम्प्यूटर बाबा की महिमा और संपादन का करिश्मा है।
 
यह तीन-चार साल की छोटी सी कन्या है। प्रचलन के अनुसार नवरात्रि के दौरान इसे भी शायद देवी के बालरूप में पूजित किया जाएगा और जलेबी-दही, पूड़ी-हलवा आदि खिला कर लोग अपनी श्रद्धा व्यक्त करेंगे।
पीछे खड़ी है इसकी बड़ी बहन, जो अपने इस घर में, सड़क के नल से पानी भर कर रख रही थी, जो रोशनी की कमी से दिख नहीं रही यहाँ। उसकी उम्र लगभग आठ-एक साल रही होगी। मैं सड़क पर खड़ी गाड़ी में बैठा प्रतीक्षा कर रहा था अन्य साथियों की।

* * * * * * * * *

बड़ी बहन लगातार सड़क के नल से घर के विभिन्न बर्तनों में पानी भर कर रखती जा रही थी और साथ-साथ सिखाती जा रही थी गिनती - अपनी इस नन्हीं-मुन्नी बहन को - पहले 1 से 100, फिर वन टू हण्ड्रेड, और फिर ए, बी, सी …
बड़ी बहन पहले बोलती थी - "इक्यासी" और छोटी दुहराती थी-"इक्याशी"।
बीच में एक बार इस गुड़िया ने कहा - "दीदी! हम भी पानी भरें?" तो उसने जवाब दिया- "तुम अगर ठीक से पढ़ोगी, तो कभी पानी भरने-बर्तन माँजने का काम नहीं करना पड़ेगा।"
छोटी बोली- "लेकिन हम तुम्हारी मदद का काम करके भी तो पढ़ सकते हैं? तुम भी तो स्कूल जाती हो"। बड़ी बहन का प्रयास और छोटी की सीखने की ललक, साथ ही हाथ बँटाने का उत्साह…
रोशनी बेहद कम थी उस घर में, मगर मुझे लगा कि चारों ओर उजाला फैल गया है और यहीं पर मुझे लगा आज बालरूप में मुझे देवी ने दर्शन दिए।

* * * * * * * * *

अब लगा तो कह दिया।
ऐसी बहक और सनक भरी बातें मेरी आदत में शुमार हैं, माफ़ कीजिएगा अगर आपका क़ीमती वक़्त बर्बाद किया या आपको उद्विग्न किया हो। इसलिए भी कहा कि जो पढ़े-सुने उस पर भी देवी की कृपा हो और उसे सद्-बुद्धि भी मिले जिससे कम से कम वह एक कन्या को शिक्षा दिलाने में सहायक सिद्ध हो। हम में से कोई एक भी अगर अपने ख़ाली वक़्त या धन का उपयोग करके किसी कम साधन-संपन्न एक भी बालिका की शिक्षा में सहायक हो पाए तो शायद यह भी देवी की उपासना ही हो! कम साधन संपन्न ही क्यों- मेरा तो मानना है कि हिन्दुस्तान में किसी भी बालिका को शिक्षा दिलाना या उसमें सहायता करना, यहाँ तक कि अगर आप किसी को छात्रवृत्ति के बारे में बता दें या उसको किसी फ़ॉर्म के जमा करने में सहायक हो सकें, तो यह भी पूजा के समान ही है।
आपको नव-"शोभन"-संवत्सर की बधाई!

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सोमवार, 15 मार्च 2010

गिरजा : इलाहाबाद के चर्च

और यह रहा इलाहाबाद उच्च न्यायालय और रेलवे स्टेशन के समीप ही स्थित एक अन्य चर्च : सेण्ट पैट्रिक चर्च। यह कानपुर रोड पर 'पानी की टंकी' चौराहे से कानपुर की ओर स्थित है। आमतौर पर टेम्पो के अनधिकृत ठहराव या अड्डे के पीछे छुपता हुआ। यहाँ एक अत्यन्त योग्य होम्योपैथिक चिकित्सक का दवाख़ाना (शायद अभी भी हो) चलता था; एक स्कूल भी चलता है।
इस 'पानी की टंकी' चौराहे से कानपुर रोड गुज़रती है और उसे अंग्रेज़ी अक्षर 'वी' के आकार में मिलती हैं दो और सड़कें - पहला तो नवाब यूसुफ़ मार्ग, जिस पर मण्डल रेल प्रबन्धक कार्यालय भी स्थित है और इलाहाबाद जंक्शन रेलवे स्टेशन का सिविल-लाइन प्रवेश भी। दूसरा मार्ग है एक फ़्लाई-ओवर जो रेलवे स्टेशन के पुराने शहर की ओर के प्रवेश 'सिटी साइड' की ओर लीडर रोड पर ले जाता है।
नियमित यातायात जाम की समस्या को झेलता है यह चौराहा, जो उच्च न्यायालय, रेलवे स्टेशन, सिविल लाइन के ट्रैफ़िक का बोझ झेलते हुए कानपुर के राजमार्ग की छाती पर मूँग दलता रहता है। यह कानपुर रोड अब वास्तव में ग्रैण्ड ट्रंक रोड (एनएच2) का बाईपास नहीं रहा, उसी का अघोषित हिस्सा बन चुका है। बहुत से लोगों को तो यह पता भी नहीं कि अगर यह 'जीटी रोड' (बोलचाल में) नहीं है तो फिर जीटी रोड है कहाँ इलाहाबाद में।
सेण्ट पैट्रिक चर्च इन समस्याओं का मूक दर्शक भी है और साक्षी भी - हमारे उत्तर मध्य रेलवे द्वारा कानपुर रोड पर बढ़ाए गए दैनिक सड़क यातायात का जो इलाहाबाद शहर से दूर सूबेदारगंज में मुख्यालय के होने का परिणाम है।

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ग्रीष्म का स्वागत

ग्रीष्म के स्वागत में ककड़ियाँ हाज़िर हो चुकीं कब से - लैला की उँगलियाँ-मजनूँ की पसलियाँ। मगर फ़िलहाल ज़ोर पर हैं चैत्र नवरात्र की तैयारियाँ।
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नवरात्र की तैयारियाँ और देवी दर्शन

दिनांक 16 मार्च को चैत्र प्रतिपदा के अवसर पर कलशस्थापन के साथ ही नवरात्रिपूजन प्रारंभ होगा।
बाज़ार अटे पड़े हैं पूजा के सामानों से। चुनरी, नारियल, वस्त्र, मेवा, सिंहासन, कलावा, धूप-अगरबत्ती आदि।
फूल-मालाएँ वैसे तो रोज़ आने वाली वस्तुएँ हैं, मगर आजकल इनकी मात्रा और खेप बढ़ी हुई है।
नवदुर्गा के विभिन्न स्वरूपों के चित्र, विभिन्न फ़्रेमों और आकारों में उपलब्ध हैं। ये भी "कमोडिटी" ही तो हैं व्यापार में। मोल-तोल हो रहा है - आकार, फ़्रेम, आकर्षकता और विक्रेता की क्षमता और साख के अनुसार।
जनरल स्टोर वाले भी अवसर को भुनाने में लगे हैं, या शायद ग्राहक की सेवा में, द्वार पर ही सभी साधन ला देने को आतुर। रविवार के दिन साप्ताहिक बन्दी के बावज़ूद बाज़ारों में ख़ासी गहमा-गहमी थी।
रविवार को इलाहाबाद के चौक से लिए गए यह दृश्य प्रस्तुत हैं जिनमें 1857 के शहीदों की स्मारक-पट्टिका का सदुपयोग हो रहा है सड़क को घेरते अतिक्रमण के आधार के रूप में बने स्टॉल पर और पूजन सामग्री टिकाने के लिए।
यह पूर्वी उत्तर-प्रदेश के किसी भी नगर के लिए आम दृश्य हो सकता है, मगर यहाँ प्रस्तुत इसलिए किया मैंने क्योंकि मैंने नवरात्र के पूर्व विन्ध्याचल की अपनी यात्रा के दौरान देवी के रूप को साक्षात् देखा।
मैंने एक चित्र भी लिया, जो अगली पोस्ट में आपको प्रस्तुत करूँगा, यथासंभव आज रात्रि को ही या कल। देखिए मोबाइल कैमरे से लिए गए इस चित्र में आप को देवी दिखती हैं या नहीं, यह तो आप स्वयं ही जान पाएँगे।

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यादेँ

यूँही नहीँ बहार का झोँका भला लगा

ताज़ा हवा के याद पुरानी भी साथ है

परवीन शाक़िर

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पत्थर गिरजा

स्वाधीनता के पूर्व के आधुनिक इलाहाबाद का विकास ब्रिटिश सत्ता द्वारा प्रमुखत: होने से साथ ही साथ इलाहाबाद में कई चर्च भी विकसित हुए। इनमें से प्रमुख हैं ऑल सेंट्स कथीड्रल (पत्थर गिरजा), मेथॉडिस्ट चर्च (लाल गिरजा), सेण्ट पॉल्स चर्च, सेण्ट पैट्रिक चर्च, म्यौराबाद चर्च इत्यादि। एक मुहल्ले का नाम ही चर्चलेन है यहाँ।
बच्चों की अपने स्वर्णिमकाल में चर्चित पत्रिका 'टीन-एजर' यहीं से प्रकाशित होती है। मैंने सोचा कि इन चर्चों से क्यों न परिचित कराऊँ आप सबको, तो कड़ी में सर्वप्रथम प्रस्तुत हैं ये चित्र ऑल सेण्ट्स कथीड्रल  उर्फ़ पत्थर गिरजा के। यह चर्च एक बड़े से गोल चौराहे की शक्ल में बने हुए पार्क के मध्य स्थित है और यह इलाहाबाद जंक्शन रेलवे स्टेशन के सिविल लाइन की ओर, अत्यन्त समीप स्थित है। वस्तुत: इस चर्च के चारों ओर की भूमि भी चर्च की ही थी जिनमें से एक ओर है आई0पी0ई0एम0, यानी वह संस्था जो भारत में टॉफ़ेल की परीक्षा का नियन्त्रक संस्थान है।
इसके निकट ही हैं उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय, प्रादेशिक शिक्षा निदेशालय, पुलिस मुख्यालय, उ0प्र0 माध्यमिक शिक्षा परिषद्, महालेखाकार कार्यालय आदि वह सभी कार्यालयीन संकाय जो इलाहाबाद को प्रादेशिक नौकरशाही के गढ़ के रूप में प्रतिष्ठित करते रहे हैं और जिस कारण से इसे दूसरी राजधानी का दर्जा मिला हुआ था।
चर्चा जारी रहेगी…

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रविवार, 14 मार्च 2010

मौसम.. .

बॉटलब्रश लुभाते हैँ और स्वागत है ग्रीष्म!

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मौसम...

मौसम...

मौसम..

मगर तैयारियाँ हमेशा कम पड़ जाती हैँ

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मौसम बदल रहा है

और शुरू हो गई है इंसानी जद्दोजहद इसे झेलने और इसका मज़ा लेने, दोनोँ की

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मुलाकात...

यह शायद हमारे अपने चुने विकल्प हैँ, या जीवन के ... पर जो भी हैं, सिर माथे हैँ।

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मुलाकात..

घर तक नहीँ आ सका मगर उसे घर का खाना पहुँचा दिया मैँने, फिर निरीक्षण पर निकल गया। उसकी गाड़ी डेढ़ घण्टे बाद गई।

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मुलाकात

कल 13 मार्च को मेरी मुलाकात हुई अपने बेटे सत्यांशु से, इलाहाबाद स्टेशन पर। हावड़ा से मुंबई जाते हुए..

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गुरुवार, 11 मार्च 2010

आराध्य को प्रणाम

यह अपने आराध्य को प्रणाम है मेरा। माना कि चित्र कुछ विशेष अच्छे न लग रहे हों, पर यह हैं तो मेरे आराध्य के ही, जहाँ श्रद्धा, निष्ठा और प्रेम का महत्व होता है वहाँ रूप आकार गौण हो जाते हैं। इसी आस्था और प्रेम के सहारे देख पाते हैं लोग पत्थर में भगवान।
मुझे भी ऐसा ही लगता है कि हर रूप में नारायण ही मिलते हैं, चाहे वह मित्र का रूप हो या शत्रु का; संबंधी का हो या अजाने का। इसी से प्रणाम सभी को, आपको भी, क्योंकि आप भी भगवान ही हैं मेरे लिए तो।आज बस इतना ही।

Posted via email from Allahabadi's Posterous यानी इलाहाबादी का पोस्टरस

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