गुरुवार, 1 जुलाई 2010

और यह कविता (अ…कविता?)

आज मैंने यह लिखा है…
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न जानो तुम
स्वाद - गंध - स्पर्श से परे…
टिटहरी की उड़ान और गिलहरी की फ़ुदक,
बिम्ब अँधेरे में धुएँ के।
कुछ टूटता,
कुछ गलता,
कुछ चाहा सा हो गया अचानक चित्तीदार;
रोएँ उड़ रहे हैं-
किरनों के स्वयम्वर में,
लजाती हुई परम्परा-
रूठती है;
दिनमान निश्चित,
राका अशेष-
और समय चुप!
कराहते हुए सन्नाटे में,
सुलगती हुई बूँदें
टुप-टुप-टुप…
अब शायद महक आए
किसी सड़ाँध से अलग;
शायद मोगरे की-
शायद पसीने की
आभार!

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आप चाहे कुछ भी टिप्पणी दें या न दें, मगर मैं ज़रूर टिप्पणी दूँगा - अपनी प्रतिक्रिया, अपनी ही इस रचना पर, और वही दूँगा जो अभी सोची है - ईमानदारी से - आप चाहे जो भी कहें!

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