बुधवार, 23 जून 2010

दादा-दादी:नाना-नानी <=> ग्रैण्डपैरेण्ट्स कौन होते हैं?

ये मेरी रचना नहीं है। ईमेल पर मिली; जिनसे मिली - उनकी भी नहीं है। ई-पत्र में घोषित है कि यह किसी आठ बरस के बच्चे ने लिखी है - शायद गृहकार्य में दादा-दादी या नाना-नानी पर लेख के रूप में।
पढ़कर मैं पहुँच गया आठ बरस की उम्र में - और साठ बरस की उम्र में एक साथ!

देखिए आप पर क्या असर होता है-

ग्रैण्डपैरेण्ट्स कौन होते हैं?
(ग्रैण्डपैरेण्ट्स : दादा-दादी/नाना-नानी : आगे केवल दादा-दादी का ही प्रयोग रहेगा, संदर्भ दोनों का समझें)

ये एक औरत और एक आदमी होते हैं जिनके अपने कोई छोटे बच्चे नहीं होते। उनको दूसरों के छोटे बच्चे अच्छे लगते हैं।
इनमें से दादाजी आदमी होते हैं और दादी औरत।

इन लोगों को और कुछ काम नहीं करना होता। बस जब हम लोग मिलने आएँ तो हमसे मिलना होता है। जब हमारे घर आते हैं तो दादाजी को अख़बार पढ़ना और सब्ज़ी-फल लाना अच्छा लगता है। वो दूध भी लाना चाहते हैं, मगर दूध पैकेट में अपने आप आ जाता है।
ये लोग इतने बूढ़े होते हैं कि ज़्यादा दौड़ना या खेलना इनके लिए अच्छा नहीं होता। इनके लिए यही ठीक होता है कि ये हमें अपने साथ बाज़ार ले जाएँ और दूकानदार को हमारी चीज़ों के पैसे दे दें।

जब ये हमारे साथ टहलने पार्क में जाते हैं तो हम लोग गेंद खेलते हैं और ये किसी सुन्दर फूल-पत्ती या चिड़िया या कीड़ों को भी देखते रहते हैं।

ये लोग हमें फूलों के रंग दिखाते हैं और चिड़ियों की बोली सुनाकर उनका नाम बताते हैं। फूल तोड़ने से मना भी करते हैं और ख़ुद तोड़ कर हमें दे भी देते हैं। दादाजी हमें पानी से खेलने को मना नहीं करते। कभी-कभी तो ख़ुद भी साथ में खेलने लगते हैं।

ये लोग हमें मना तो करते हैं, मगर ज़्यादा डाँटते नहीं। दादाजी तो बिल्कुल नहीं। मारते तो कभी नहीं। ये हमें दीवार और पेड़ पर चढ़ने से मना करते हैं, मगर ज़्यादा डाँटते नहीं।

ये लोग कभी नहीं कहते कि "जल्दी चलो - देर हो रही है"।

दादी मोटी होती हैं और नानी भी, मगर हम लोगों के जूते के फीते बाँधना इनको आता भी है और ये उतना झुक भी लेती हैं।

फिर उठ कर सीधे होते टाइम कमर पर हाथ रखकर ख़ूब "हाय-हाय" करती हैं।
दादाजी और नानाजी लोग चश्मा पहनते हैं और बड़ा ढीला सा पायज़ामा भी।

सबसे मज़े की बात यह है कि ये अपने दाँत और मसूढ़े निकाल लेते हैं।
ये लोग पापा-मम्मी से थोड़ा ज़्यादा अकलमन्द होते हैं क्योंकि जिन सवालों पर पापा-मम्मी कुछ नहीं बता पाते या डाँटने लगते हैं - ये लोग उन सवालों के जवाब में बड़ी अच्छी-अच्छी कहानियाँ सुनाते हैं।

जब कहानी पढ़ने को कहो तो ये लोग जल्दी में लाइनें छोड़-छोड़ कर नहीं पढ़ते और अगर इनसे एक ही कहानी दोबारा पढ़ने को कहो तो बुरा भी नहीं मानते। कभी-कभी कहानी सुनते सुनते सो जाओ तो वहीं सुलाए रखते हैं - उठा कर अपने बिस्तर से हटाते नहीं हैं।
दादाजी को कॉमिक्स पढ़ना अच्छा भी लगता है।

सबके पास एक दादा-दादी और नाना-नानी ज़रूर होने चाहिए, क्योंकि बड़ों में से सिर्फ़ वही हैं जिनको हम लोगों के साथ टाइम बिताना टेलिविज़न देखने से ज़्यादा अच्छा लगता है।

जब हम लोग कुछ गन्दी बात भी कर देते हैं तो भी वो हमें प्यार ही करते हैं। जब मम्मी या पापा डाँटते-मारते हैं तो भी वो हमें बचाते हैं और होमवर्क में भी हमारी मदद करते हैं।

सोते समय कुछ खाने को माँगने पर वो नाराज़ नहीं होते।

दादाजी तो सबकुछ ठीक कर लेते हैं क्योंकि उन्होंने अब तक बहुत सी चीज़ें तोड़ी होंगी, दादी कहती हैं। अभी पिछ्ले हफ़्ते उनका चश्मा टूट गया था - वो ख़ुद उस पर बैठ गए थे। नानी को खाना बनाना मम्मी से ज़्यादा अच्छा आता है और वो खिलाती भी ज़्यादा प्यार से हैं। खाना छोड़ने पर नाराज़ नहीं होतीं - क्योंकि वो प्यार कर-कर के धोखे से सब खिला ही डालती हैं।

जब दादाजी का पेट ख़राब होता है तो सबसे ज़्यादा मज़ाक दादी उड़ाती हैं।

जब दादी हल्वा बनाती हैं तो दादाजी से ज़्यादा तारीफ़ पापा करते हैं।

जब मम्मी-पापा को कहीं घूमने जाना होता है तो मम्मी को दादा-दादी का घर पर रहना ज़्यादा अच्छा लगता है।

दादी मुझे रोज़ आइस्क्रीम दिलाती हैं।

मम्मी कहती हैं कि दादी मुझे बिगाड़ देंगी।

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हिमान्शु मोहन || Himanshu Mohan
http://sukhanvar.blogspot.com
http://sangam-teere.blogspot.com

Posted via email from Allahabadi's Posterous यानी इलाहाबादी का पोस्टरस

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