बुधवार, 14 अप्रैल 2010

नज़्मो-ग़ज़ल कहने का आसान तरीक़ा

सबसे पहले दर्द मेँ डूबे कुछ अल्फ़ाज़ चुनो,

फिर उन्हेँ ग़म की हरारत पे देर तक सेँको;

अनमने से रहो, रातें गुज़ारो आँखोँ मेँ,

करवटेँ यूँ लो के नीँद आए भी तो सो न सको।

उदास दिल, ज़ुबाँ गुमसुम मगर मुस्काते होँ लब,

नज़र मेँ ख़्वाब होँ ऐसे जो पूरे हो न सकेँ;

ये सलीका है क़ामयाब नज़्म कहने का।

बात आगे बढ़े, बढ़कर जुनूँ-फ़ितूर बने,

वक़्त समझो के आ रहा है ग़ज़ल कहने का।

दीवानापन अगर इतना बढ़े - सब तंज़ कसेँ,

यही अस्बाबो-हुनर है न ग़ज़ल कहने का...

Posted via email from Allahabadi's Posterous यानी इलाहाबादी का पोस्टरस

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