प्रश्न इकट्ठे होते जाएँ और समाधान न हो पाए तो अपनी बौद्धिक क्षमता की सीमाओं का एहसास और शिद्दत से होता है।
जब दूसरों से भी उत्तर न मिले तो असहायता का।
क्या होता है जब प्रश्न-ही-प्रश्न हों चहुँ-ओर? अस्तित्व ही प्रश्न लगे?
प्रश्नों से घिरे रहकर मनुष्य यक्षत्व को प्राप्त हो जाता है।
दूसरों को धमकाता है – प्यासे रहो!
यदि मेरी जिज्ञासा की प्यास बुझाए बिना जल पिया तो पत्थर के हो जाओगे।
वास्तव में धमकाता नहीं, यक्ष सचेत करता है कि यदि प्रश्नों के उत्तर न खोजे तुमने, तो आज नहीं तो कल, पत्थर का तो तुम्हें होना ही है।
मगर उनका क्या जो प्रश्न ही नहीं पूछते?
जिन्हें सब-कुछ सहज स्वीकार्य है?
चैन नहीं खोना है तो प्रश्न मत पूछो। स्वीकार में शान्ति है और जिज्ञासा में बेचैनी। मुमुक्षु को या तो अपनी सब जिज्ञासाएँ शान्त करनी होंगी, या फिर प्रश्न न पूछ कर, सब कुछ सहज स्वीकारना होगा।
Posted via email from Allahabadi's Posterous यानी इलाहाबादी का पोस्टरस
aapke daarshanik vichar vaala yah lekh kaafee achhaa laga.
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