प्रश्न कितने हैं न जाने, एक भी उत्तर नहीं
यक्ष आतुर प्रतीक्षारत, वह स्वयम् प्रस्तर नहीं
प्रश्न करने या न करने से भला क्या प्रयोजन
परस्पर भाषा-कलह में एक भी अ-“क्षर” नहीं
जूझती बैसाखियों पर मौत लादे प्रश्नहीन
मूर्त्त जीवट स्वयं, निस्पृह लोग ये कायर नहीं
प्रश्न-उत्तर, लाभ की संभावनाओं से परे
अर्थवेत्ता-प्रबन्धक कोई अत: तत्पर नहीं
सब सहज स्वीकारने का मार्ग सर्वोत्तम सही
साधना-पथ पर “सहज” से अधिक कुछ दुष्कर नहीं
अन्यत्र "यक्ष-प्रश्न" पर यह कविता फ़ॉर्मैट कर के छापी, यहाँ ऐसे ही। प्रयोग जारी है।
Posted via email from Allahabadi's Posterous यानी इलाहाबादी का पोस्टरस
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें