अमिया वाली ग़ज़ल में हालात के मद्देनज़र एक शे'र और जुड़ गया है -
फलने पर डण्डे मिलते - दस्तूर पुराना है,
सबकी अपनी अपनी नीयत कहाँ बदलती है!
Posted via email from Allahabadi's Posterous यानी इलाहाबादी का पोस्टरस
यानी एक कोशिश…
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आपने बड़े ख़ूबसूरत ख़यालों से सजा कर एक निहायत उम्दा ग़ज़ल लिखी है।
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआ बैठिये घर में कि हों बातें हिसाब की
जवाब देंहटाएंग़म की, खुशी की ,दिल ज़हन के इंतखाब की
हो आंख से शुरू भले हो पैरहन पै खत्म
बातें मगर लज़ीज़ हो उस लाजवाब की
पेशगी खुशआमदीद
@kumar zahid
जवाब देंहटाएंजनाब ज़ाहिद साहब!
नमस्कार। सबसे पहले तो क्षमा चाहूँगा कि आपकी टिप्पणी पर इतने रोज़ बाद आया, सो जवाब में देरी हुई। वजह ये है कि इस बीच मैंने अपने अलग-अलग ब्लॉगों को समेट कर पहले एक, और फिर अब दो-तीन ब्लॉगों में बाँटा है। "संगम-तीरे" पर सबकुछ, ग़ज़ल-शायरी छोड़कर, शायरी सिर्फ़ सुख़नवर पर और शेष कण्टेण्ट और मोबाइल से पोस्टें "इलाहाबादी का पोस्टरस" पर। ये ब्लॉग इब्तिदाई तजुर्बात के लिए था सो यहाँ भी पोस्टरस से पोस्टें चलती रहेंगी, मगर नियमित ब्लॉग ऊपर वाले ही रहेंगे।
आपकी शुभकामनाओं का बहुत-बहुत शुक्रिया, और फिर मिलते हैं…