सबसे पहले दर्द मेँ डूबे कुछ अल्फ़ाज़ चुनो,
फिर उन्हेँ ग़म की हरारत पे देर तक सेँको;
अनमने से रहो, रातें गुज़ारो आँखोँ मेँ,
करवटेँ यूँ लो के नीँद आए भी तो सो न सको।
उदास दिल, ज़ुबाँ गुमसुम मगर मुस्काते होँ लब,
नज़र मेँ ख़्वाब होँ ऐसे जो पूरे हो न सकेँ;
ये सलीका है क़ामयाब नज़्म कहने का।
बात आगे बढ़े, बढ़कर जुनूँ-फ़ितूर बने,
वक़्त समझो के आ रहा है ग़ज़ल कहने का।
दीवानापन अगर इतना बढ़े - सब तंज़ कसेँ,
यही अस्बाबो-हुनर है न ग़ज़ल कहने का...
Posted via email from Allahabadi's Posterous यानी इलाहाबादी का पोस्टरस
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें